भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हारा नाराज़ होना / भावना मिश्र
Kavita Kosh से
बेटे राघव के लिए
तुम्हारा नाराज़ होना यूँ होता है जैसे
सारे सुन्दर फूलों ने फेर लिया हो चेहरा
कि सुबह की ताज़ी हवा ने
ठान ली हो ज़िद
बगैर छूए ही गुज़र जाने की
नरम दोपहरी जैसे
उलटे पाँव लौट गई हो
खिड़कियों से.
देखो ना, आज चिड़ियों ने भी नहीं
चखा अपना दाना-पानी
तुम्हारा सुग्गा भी बैठा है ‘
गर्दन में मुँह घुसाए
अलसाई बैठी है गली में गाय
टुकुर टुकुर देखती बासी रोटी..
अब मान भी जाओ
कितने काम रुके हैं
एक तुम्हारी मुसकान पर