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तुम्हारी हँसी / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
तुम्हारी हँसी की स्मृति से
जगमगाते हैं मेरी रातों के तारे
तुम्हारी हँसी को सुनने से
करवट लेता है जैसे अलसाये आकाश में तानों का हुजूम
दूर कहीं चटख़ते हैं देह के निर्झर में सोये हुये राग
टूटे-बिखरे टुकड़े
बिसरी हुई बन्दिशों के सार
तुम्हारी हँसी को देखने से
दरियाओं के रंग उमड़कर ढल जाते हैं चित्रों-से
झोपड़-पट्टी के घर-द्वार
लेकिन तुम्हें देखने से साक्षात्
प्रात नभ के आँगन में
सूर्य ने यूँ किलक भरी हो
भोर में डूबे मौन समुद्र को
मिल गई हो मानो बाल क्षितिज की भाषा