तुम्हारे और बिस्तरे के बीच / वीरेन्द्र कुमार जैन
ऐसा नहीं लगता
कि तुम अपने बिस्तरे में सोए हो :
तुम्हारे और बिस्तरे के बीच
शताब्दियों की एक खन्दक खुल गई है
उसमें आदिम नारी की योनि
परित्यक्ता पराजित और पथराई पड़ी है
एक अथाह गुहा-कूप में
रहस्य का जल-कम्पन नहीं
प्यासी हिरणी की बिंधी हुई आँखों के
निस्पन्द काँच हैं।
उसके ऊपर के झाड़ी-झंखाड़ों में
केवल साँपों की कोमलता
सरसरा कर गुज़र जाती है
उचाट दोपहरियों में :
दो फूटे घड़ों-से दो स्तन इधर-उधर लुढ़के पड़े हैं,
उनके ठीकरों में उग आई है निरर्थक घास :
उनकी मृदुलता और ऊष्मा के अनन्त को
बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण की पदचाप
सदा को कुचलकर चली गई...!
...निर्वाण के शून्य में
ठिठके रह गए हैं शास्ता के चरण :
कमंडलु में काँप गए एकाएक
दो दूध से उमड़ते स्तन :
और छूट कर गिर पड़ा सहसा कमंडलु
बोधिसत्त्व के उदबोधक हाथ से...!
फिर भले ही यशोधरा के आँसू
अनपोंछे और अवहेलित ही सूख गए हों :
भले ही वे डूब गए हों
कैवल्य की शताब्दियों-व्यापि जयकारों में...!
...आत्मन, तुम्हारे और तुम्हारे बिस्तरे के बीच
फैल गई है जो अन्धकार की खाई
इस आधी रात में :
उसमें छटपटा रही है एक परित्यक्ता की शैया,
संसार और निर्वाण के बीच ठिठके
दो चरणों में
गाँठ पड़ गई है :
जो उलझती ही जा रही है,
किसी भी तरह खुल नहीं पा रही है...!
मुक्त हैं केवल
विराट में दूध से उमड़ते दो स्तन,
जिनके और तुम्हारे बीच
पड़ा है गलतफ़हमी का एक महाकाल सर्प :
जिसे मनुष्य की युगान्तर-व्यापी तपस्या भी
जीत नहीं पाई है...!
नहीं जन्मी है अभी वह अनामा
जो आप ही हो जाए तुम्हारी शैया :
आत्मन, सहा नहीं जाता है
अब तुम्हारा यह अनसोया बिछौना :
एक लपट, जो तुम्हें जला भी नहीं पाती है,
और जीने भी नहीं देती है।
रचनाकाल : 17 मई 1969