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तुम / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
ओ तुम
गीत ही बुनता रहा आंगन
तुम्हारी आहटों से
गूंज के गले में
गुमसुम बांध कर गए तुम
ओ तुम
दिशा ही तो देखती रही आंखें
तुम्हीं से सूरजमुखी
लरज़ता उजले क्षितिज का
एक सपना धुंधवा कर गए तुम
ओ तुम
तुम्हीं से हां तुम्हीं से रेखा किए
दुखते फलक पर
शोर का संसार
रंगों से भरी हथेलियों पर
ठंडी आग का
हिमालय रख गए तुम
ओ तुम
किससे भरूं
कैसे भरूं
यात्रा में आई दरारें
कैसे टांक लूं पैबंद
फट गई तितीर्शा पर
पिरो तो लूं कभी
विरासत में बची
नंगी सुई
सूत भर सम्बन्ध भी
संवेट कर ले गए तुम
ओ तुम