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तुम अच्छी क्यों हो / चंद्र रेखा ढडवाल


तुम कितनी अच्छी
भाई की जूठन खाकर
धो-पोंछ कर थाली
धर देती हो
ताक पर
. . .
तुम कितनी अच्छी
भाई की
निक्कर बुशर्ट धो कर
तहा देती हो
सिरहाने तले
. . . .
माँ के साथ
जाने लगी हो काम पर
कि ख़रीदे जा सकें
भाई के लिए
चमचमाते जूते
. . . . .
कि थाम लिए
दो घर अपने बूते पर
कि भाई
भाई पढ़ेगा अब
शहर के बड़े स्कूल में
. . . .
सुनो!
तुम इतनी अच्छी क्यों हो?