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तुम एक सपना थीं! / आलोक श्रीवास्तव-२

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एक भावना मर रही है
धीमे-धीमे
अस्त हो रहा है मेरे लहू में एक सूर्य
लोहित जल पर
एक थरथराती छाया
यह तुम हो

गोधूलि के झुटपुटे में
आकाश में उनींदे बादल हैं
भाग रहा है सारा शहर
दूर तक झिलमिलाता
रोशनियों का जंगल है
एक स्वप्न तब्दील हो रहा है
एक छाया में
जल में विलीन होती यह छाया
यहां कभी थी
यह कौन जानेगा बरसों बाद?

तुम एक सपना थीं-
रात का, चांद का, बादलों का
फूलों का एक वितान था तुम्हारे चारों ओर
रहस्य की अजीब पंखुरियां तुम्हें घेरे थीं
इतिहास के भयावह अंधकार में से
सहसा उजागर हो उठी
एक मुकम्मल शख़्सियत
धुंध में से छनता हुआ
धूप का एक राग

एक ख़ामोश साया
कौन जानेगा बरसों बाद
यहां, इसी शहर में
कभी था?

यह जो टूट रहा है, मर रहा है
डूब रहा है
अस्त हो रहे सूर्य के इस सागर में
प्यार नहीं है, भावना नहीं है
एक समूची दुनिया है
बरसों बाद कहां होगी यह दुनिया?

सागर के ख़ामोश किनारे पर
मैं किसे तलाशूंगा?