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तुम जान नहीं पाओगे / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
मैं लहरों के थपेड़ों में
टूटती बनती
बनती टूटती
एक बुलबुला हूँ
लहरें किनारों से टकराती हैं
टकराकर बिछल जाती हैं
दूर-दूर मुक्ति की रेत पर
रेत पर काले धागों से बना जाल
नहीं वह काला है नहीं
दिख रहा है रात में
और कर रहा है प्रतीक्षा
अंधे मछुआरे की
तुम हवा हो
जिसमें मेरा दिल धड़कता है
फेफड़े सांस लेते हैं
उन बुलबुलों को जानते हो ना
जो तुम्हारी यादों की कुनकुनी रेत में
समा जाते हैं टूटने के बाद
पर कोई देख नहीं पाता
कौन देखता है भला
टूटना किसी का