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तुम दीप बन आओ / संतोष श्रीवास्तव

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मेरे सपनों का हरापन
जब भी लहलहाता है
तुम सैंकड़ो दीप का उजाला बन
दिल की मुंडेरों पर जगमगाते हो

खिल पड़ते हैं
सारे महकते मौसम
दीपकों की लौ में
जिंदगी भरपूर
नजर आने लगती है
प्यास के सारे तजुर्बे
उन दीपों के स्नेह से
गुजरते हैं
भीग भीग जाता है मन

भीतर समाई प्रेम की
तड़प को चीर
हथेलियों पर गोल-गोल
घूमती है नेह की बत्तियाँ
तुम्हारी तलब के मुहाने पर
रखती जाती हूँ एक-एक बाती
बाल देती हूँ प्रेम अगन से

आओ इन दीपों में
उजाला बन
उतर आओ
मेरे मन के तहखानों में
हम ज़िन्दगी से मुट्ठियाँ भर ले
सुर्ख जज़्बातों को
दीपों की बत्तियों में बाल
कैद कर लें इक दूजे को