भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम नहीं तो... / वर्षा सिंह
Kavita Kosh से
ओह, मन का भ्रम
ये शायद
आग भी पानी लगे
तुम नही तो प्यास की
चर्चा भी बेमानी लगे ।
बात कुछ ऐसी कि
लगती ज़िन्दगी
ठण्डी बर्फ़-सी
भीड़ में खोए हुए अपनत्व-सी
कौन जाने क्या हुआ
हर चीज़ बेगानी लगे ।
सूर्य को मुट्ठी में
भर कर
चूमने की चाह में
होंठ अक्सर
जल गए हैं आह रूपी दाह में
नेह की परछाईं भी
अब तो अनजानी लगे ।