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तुम नहीं होगे जहाँ / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
तुम नहीं होगे जहाँ, अब उस जगह की खोज है!
बार-बार मना किया, पर मानते ही तुम नहीं!
मानने की बात, मानो, जानते ही तुम नहीं!
घेर लेते हो अकेले में मुझे क्यों इस तरह?
लोक की मरजाद कुछ पहचानते ही तुम नहीं!
तुम न दुख दोगे जहाँ, अब उस जगह की खोज है!
क्यारियों को क्या करीलों से सजाते हैं कहीं!
बाँसुरी को क्या कमानी से बजाते हैं कहीं!
छेड़ते हो तार वीणा के, मृदंगी की तरह!
मीड़-पीड़ित को भला ऐसे सताते हैं कहीं!
तुम न छेड़ोगे जहाँ, अब उस जगह की खोज है!