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तुम पुकारोगे जो मन से / अमरेन्द्र

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तुम पुकारोगे जो मन से,
बज उठेंगे प्राण झन-से ।

गूंज जायेगी धरा यह
रोम तरु के खिल उठेंगे,
दूर तक बिखरे हुए जो
सब विकल हो मिल उठेंगे;
लय सजेगी, सुर सजेंगे,
कण्ठ कोकिल हो उठेगा
चाँद छू लेµक्या असंभव
ज्वार ऐसा जो उठेगा ।
बन्द अधरों से हँसो तुम,
चाँदनी बरसे तपन से !

मैं अकेला ही नहीं हूँ
प्रीत की रसधार चाहूँ,
इस तरह हो कर अकिंचन
रूप-छवि-संसार चाहूँ;
विश्व, वसुधा से गगन तक
एक हलचल से विकल है,
वेदना से मुक्ति की यह
शून्य में अन्तिम पहल है।
हाँक दे-दे कर बुलाए
कौन यह मुझको विजन से?