तुम पूछ रही हो मुझसे / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
तुम पूछ रही हो मुझसे जीवन मे क्या क्या देखा
पहचान न पायी मैंने जीवन की धुंधली रेखा
संघर्ष यहाँ होता है सब दिन से समझ रहा हूँ
अनजान किसी उलझन में अपने यों उलझ रहा हूँ
जीने का मन करता है इस मर्त्यलोक में आकर
मरने की सुनकर चर्चा मन रह जाता घबराकर
भगवान छिपा बैठा है, निश्चन्त न जाने क्योंकर
निष्ठुर के सम्मुख जाकर क्या होगा रोकर, धोकर
मैं हृदय थाम लेता हूँ विधि की इस निष्ठुरता पर
लज्जित होना पड़ता है अपनी इस कायरता पर
रोने हँसने पर मेरा अपना अधिकार नहीं है
पर, हँसना हो या रोना, कुछ भी बेकार नहीं है
मुस्कान अधर से बाहर होने पर मन खिल उठता
कैसे दिल खोल दिखाऊँ जो तुम अन्तर पहिचानो
मेरे मन की पीड़ा को तुम अपनी पीड़ा मानो
तुम जैसा समझ रहे हो वैसा संसार नहीं है
फिर भी कैसे कह दूँ मैं जीवन से प्यार नहीं है।