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तुम भी मीठा ही पाओगे / रामगोपाल 'रुद्र'
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					तुम भी मीठा ही पाओगे, जीवन जो मुझको प्यारा है! 
कबसे घट में भर रखा है, 
एक बार भी कभी चखा है? 
लोने हो जाएँगे प्याले! क्या यह जल इतना खारा है? 
कैसे कह दूँ, पंक नहीं है, 
इसमें एक कलंक नहीं है, 
किन्तु यहाँ खिलकर तो देखो, यह सरवर सबसे न्यारा है! 
अम्बर में तो खिलते ही हो, 
सागर से भी मिलते ही हो, 
बाँधूँ तुमको मैं किस गुण से, चपल नहीं मेरी धारा है!
	
	