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तृण-तृणराज / अन्योक्तिका / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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दूभि - छिलल कते, मरदल कते, गाय - महिसि चरि गेल
रौद-शीतल दागल कते, दूभि न मारल गेल।।44।।

बाँस - ने फुलाय, ने फड़य, ने शाखा बाँसक एक
ने शरीर निस्सन तदपि त्वचा रखै अछि टेक।।45।।

वंश-वंश वंशी विदित, बाँसहि वश घर बास
अपने रगड़ेँ जरय पुनि करय पड़ोसिहु नाश।।46।।

ताड़ - ऊँच नाम लखि ताड़केँ करिअ न फल विश्वास
पथिक! अधिक की? नहि पुरत छाया धरिहु क आस।।47।।

पत्र छत्र पुनि सजल फल स्वागत हित मधुपर्क
किन्तु स्निग्ध छाया बिना पथिकक नहि सम्पर्क।।48।।

अन्तर सड़ले, बाहरो तन मढ़ले गज - चर्म
तदपि मदेँ मातल रहय, ताड़ निधिन अपकर्म।।49।।

सोझ-साझ नमछर सुदृढ़ सफल सरस मधु भाव
छवि छाया नहि तारकेर गत व्यक्तित्व प्रभाव।।50।।

नहि छाया नहि पेय पय, भरि लवनी मधु-गाढ़
बहकाबय कत बाट बिच तुरुक ताड़ तरु ठाढ़।।51।।

घन छाया बरु नहि दिअओ, पंखौ कत बितरैछ
तड़िपत लिपि विन्यासँ ताड़ सुपत कहबैछ।।52।।