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तेसर सर्ग / कच देवयानी / मुकुन्द शर्मा

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प्रेमांकुर

उतरल संख्या पश्चिम में फैलल हे लाली,
छितिज पास में उतर रहल दिन के वनमाली।
विगह नीड़ में लौट रहल हें चुगके दाना,
पेड़ों पर बंटरहल गीत के अमृत खजाना।
वन्य जीव सब निज स्वगेह में लौट रहल हें,
गैया सब्हे रंभाल बंद अब चहल पहल हें।
रंगल सेनुरिया रंग में पर्वत रेवा पानी,
स्वर्ण बितान तनल रेवा के पूत कहानी।
पश्चिम के सिंदूरी मांग बन वैभव जागल,
थकल सूर्य अब शांत हो रहल दिनभर भागल।
सांध्य भ्रमण तट पर कच बैठल शांत भाव से,
देख रहल जल के सुन्दरता बड़ी चाव से।
कलकल छलछल लहर लहर के नूतन नर्तन,
जल नाचे हे उछल कूद कर प्रत्यावर्तन।
कजै हिरण पानी पीए हे कजै गाय हे,
रेवा या नर्मदा दोसरकी गंगा माय हे।
रेवा विंध्य शिखर से लिपटल यथा मेखला,
धन्य विंध्य हे, धन्य नर्मदा सब्हे देखला।
गुरुकन्या भी सांध्य भ्रमण से पहुँचल घट हल खाली,
ओजै हे बैठक तरुण पुजारी जे जीवन के माली।
अनुपम संुदरता निहार के कच निहाल हल,
मंद-मंद मंथर गुरुकन्या सुघर चाल हल।
नूपुर बजल किंकिणी धुनि सुनलक कच मोहित,
हृदय सरोवर आंदोलित आरोह अवरोहित।
निर्निमेष ऊ देख रहल गुरु-सुता सुन्दरता,
सुंदरता मानवी बनल हे सुछवि मूर्तता।
छवि-शृंगार हे कान्ति कोष हे ई देवयानी,
धरती पर सुरभित सुन्दरतामय कल्याणी।
चन्द्र कांति, पाटल के लाली बरदूसी सन ठोर,
धरती अमरपुरी में ऐसन तरूणी नय कोय गोर।
कोकिल कंठी मधु प्रिय बचनी श्याम घटासन केश,
अंग-अंग सुंदरता झलके धन्य होल परिवेश।
हंसे देवयानी तो सगरो फूल खिले हे,
रेवा-तट के छाँव शीतलता ओजा मिले हे।
घट भरलक हल धन्य बनल तट धन्य नर्मदा सरिता,
धन्य नयन कचके तखनेहल शुक्रसुता शुभ चरिता।
कच बैठल हल रेवातट पर सुंदर संध्या बेला,
शुक्रसुता देखलक ओकरा बैठल एकान्त अकेला।
कचके सुंदरता लखके सुंदरता लजा रहलहल,
कामदेव भी हल लज्जित सुरपुर सौन्दर्य महल हल।
छवि देख रहल दोसर छवि के सुंदरता के हल उभय óोत,
दोनों के आनन पर आभा बर रहल लगे है बड़ी जोत।
सुगठित शरीर, उन्नत ललाट, चमके कचके दिव्यानन,
सामने दृष्टि जब पड़ल तभी उड़ चलल देवयानी खंजन,
रीझल संुदरता सुंदर पर हल धन्य विधाता के रचना।
विद्युती कांति के आकर्षण से कैसे हो पइते बवना।
इंगिति पाकर कच उठल और गुरू शुक्र सुता के साथ होल,
दोनों के आश्रम के मग में मिसरी मधु घोलल बड़ी बोल।
सांध्य-भ्रमण पर हल कच देखलक सुंदरतम हे घाटी,
रेवा मैया के पवित्र जल चन्दन है ई माटी।
लगा लेलक माथा से माटी कैलक सूर्य-प्रणाम,
बोलल शुक्रसुता से देवी इहे तीर्थ हे धाम।
मात-पिता हे बड़ धाम गुरू कुटिया बड़का मंदिर,
उतर रहल हें जहाँ नर्मदा हे प्रवाह अब फिर-फिर।
धन्य नर्मदा, पुण्य नर्मदा, नर्मदा हे पुण्यतोया,
परम हितैषी सबके है ई सबके पाप के धोया।
अमृत-तुल्य गंगा रेवा जल कभी न होतै खाली,
सींच रहल हे युग-युग से ई धरती आर बनाली।
तीर्थमयी सलिला है रेवा सगरो पुण्य बिछावै,
जे मांगे ओकरा सब देहे कजैन कभी छिपावे।
एकरा तट पर जे मुनि बसला ऊ तो हथ बड़भागी,
एकर किनारा पर सगरो फूलो है हरियर बागी।
कच प्रणाम कैलक रेवा के श्रद्धा देवयानी के,
प्रेम पंथ के द्वार खुल रहल समझो ई ज्ञानी के।
बोलल देवयानी कच लहर बूँद के माला,
विंध्य गला में पड़ल नर्मदा देवी सुंदरी बाला।
विंध्याचल गंभीर वन पर्वत घाटी के सींचे हे,
जहाँ-तहाँ वनवासी ई में कपड़ा भी फींचे हे।
देखो संध्या के नभ में उड़ रहल अनेक पखेरु,
वन्यभूमि से चरको लौट रहल हैं पालतू गोरु।
वनवासी झोपड़ में लौटल चूल्हा अप्पन जोरे,
एक पैरिया रस्ता पर बच्चा ओकरा बाप अगोरे।
चलते-चलते देर होल पहुँचल दोनों गुरु कुटिया,
सगर राह में बजते आवे नूपुर डोले बिछिया।
गाय बांधलक संझा बाती के असली हल बेला,
कच नय हल तो शुक्रसुता कुटिया में रहे अकेला।
अब तो दूजन अब तो दू मन एक हो रहल सपना,
भजे देवयानी कचके हे कच अब लगे हे अपना।
पाककला में निपुण देवयानी तब खीर बनैलक,
पिता और कचके परोस के अपने पीछे पैलक।
उतरल रात अंधेरा के फैलैलक काली चादर,
नील गगन में चन्दा चमके उड़ल बहुत चमगादर।
एक चाँद हे आसमान में एक चाँद धरती पर,
छिटक रहल चाँदनी सगर हे जंगल में परती पर।
गुसमसु निशा प्रवाह नर्मदा के हे पड़ल सुनाई,
विंध्य-सुता ई चपल नर्मदा जगहित उतरल धाई।
तारक खचित नीलाम्बर शोभे रजनी रानी साड़ी,
निशा सुंदरी उतरगेल हंे लगे हे बड़ी अनाड़ी।
कभी स्यार बोले रजनी में कभी नर्मदा माता,
शांति नदी के स्वर सुनके लग रहल कि विंध्या दाता।
श्रांत-क्लांत दिन थक के सुतल रजनी के साया में,
सांस ले रहल मर्मर जंगल कुछ न लखे छाया में।
उगल भुडुकवा ज्ञानी गुरु के कंठ प्रभाती,
कच जागल गुरु कन्या जागल बीतल राती।
गुरु के उपवन से कच चुनलक पुष्प अर्चना,
सफल मनोरथ बने शिष्य के आत्म प्रार्थना,
गुरुपुत्री गैया मैया के कैलक सेवा,
गोमाता सहस्र तीर्थ हे जैसन रेवा।
कुटिया पास रोपलक हल ऊ पौधा तुलसी,
जल दहल ऊ रोज फुलल पांती में अलसी।
हर सिंगार के फूल झरल संुदर वन प्रांगण,
पाटल के लाली सुंगध फैलल हल आंगन।
बेला-बेली खिलल जवा के बहुत फूल हे,
बकुल खिलल हे, पथरी भू नय कजै धूल हे।
ध्यान और पूजा कैलक कच भोजन कैलक,
गुरु पुत्री से गोचारण के आज्ञा पैलक।
असुर क्रू से बचके रहिहा ई कच सुनलक,
देवयानी जे कहे सब्हे के मन में धरलक।
रोज शाम के गाय चराके ऊ लौटो हल,
ओकरा पहुँचे से जंगल में हो हल मंगल।
वन्यजाति के बीच पहुँच को ज्ञान बांटलक,
जतना हल अज्ञान अंधेरा ओजा छांटलक।
सबके कहलक पढ़ो लिखो अक्षर पहचानो,
साफ सफाई करो पियो जल पहले छानो।
हिरण, शशक आर नीलगाय के कभी न मारो,
कंदमूल फल फूल लगावो समर न हारो।
नारी शिक्षित करो उहे समाज के धुरिया,
बेटा-बेटी सब समान सब दौड़े गुड़िया।
माय-बाप के सब मानों तों जीवित देवता,
सबके राह बतैलक सबने देके नेउता।
कचके अइला से प्रसन्न हल सब वनवासी,
लगल कि कोय उद्धारक पहुँचल वन संन्यासी।
दीप्तमान कच लगल समय के बड़ा सूर्य हे,
गूँ रहल हें वन प्रांगण में ओकर तूर्य हे।
रोज सबेरे से संध्या तक गाय चरावे,
दिन भर सबके शिक्षा दे संध्या घर आवे।
देखलक कचके असुर जानलक ई तो सुर हे,
हम्मर गुरु से ज्ञान सीख को हमरा नाश करत ई,
खेल खतम कर दा एक्कर देखते मरत ई।
कचके दुश्मन समझ असुर कर देलक हत्या,
कभी न सोचलक ई तो है बड़भारी पतिया।
रेवातट पर पड़ल चाँद सन सुंदर काया,
आतंकी बन मार देलक राक्षक के छाया।
देश समाज ले बड़ी जहर हे बर्वर ई आतंक,
कैसे देश बढ़त आगे आतंकी बड़ी कलंक।
हे आतंक जर के पुड़िया मनुष्यता के दुश्मन,
प्रगति मार्ग के बड़का बाधा दीन हीन दुख बंधन।
जाति भेद या नस्ल भेद या करे जे खून खराबा,
जे समाज के दुश्मन हे ऊ कहे कि हम ही बाबा।
निरपराध के खून बहावे ऊ हे सत्यानाशी,
जे जेहाद करे आतंकी, ऊ राक्षस-घरबासी।
तरुण तुर्क केजे सिरकाटे विधवा करे विलाप,
जे माता के बेटा मारे ओकरा दा सब शाप।
निरपराध के मार रहल हें फैलावे भय सगरो,
तीर्थ, घाट, मेला में कत्ल करे रोके जे डगरो।
ऊ आतंकी के सब पकड़ो पूरा करो विरोध,
जहाँ-तहाँ आतंकवाद हे करो सभे मिल क्रोध।
रोको ई आतंकवाद के, ई हे बड़का रोग,
सभ्य समाज और संस्कृति के ई बड़का दुर्योग।
आतंकी के राह रोकदा सब मिल होके साथ,
ई आतंकी कतरा घर नारी के करे अनाथ।
प्रगतिशील शिक्षित समाज के ई हे बड़ी कलंक,
मचा रहल हें सगर विश्व में आतंकी हड़कंप।
आतंकी के जाति न पूछो, धर्म न पूछो भाषा,
दहशत, भय, हत्या, अपहरण रहल कर बड़ी निराशा।
लूटपाट कर धन लेजा हे निर्मम हे हत्यारा,
पकड़ो सब आतंकी दल के बनो न कोय सहारा।
रेवा के निर्मल जल में कच रक्त मिले से लाल,
कत्ते दिन के बाद बनल राक्षस कचके बड़काल।
संध्या समय गाय लौटल सब पूरा बनल उदास,
कच लौटल नय शुक्रसुता व्याकुल हल बड़ी निराश।
शुक्रसुता शंका में घिरको बहुत बनल हल व्याकुल,
पहुँचल पिता पास में बड़ी रूआँसी होके आकुल।
पिता कहलका बेटी चिंता के बतलावो कारण,
हम तोरा ले सब्हे दुख के अभिए करम निवारण।
रात हो रहल कच न आल हें गाय के साथ,
लगे हे कि कुछ हे अनहोनी हम बन गेलों अनाथ।
ध्यान लगावो देखो कचके साथ घटल अनहोनी,
बड़ी कठिन आर महत् पुण्य से मिले हे मानव जोनी।
ध्यान लगैलका दिव्य दृष्टि से सबकुछ होल प्रत्यक्ष,
घिरल प्रश्न दोनों के आगे कैसे पुरतै लक्ष।
कच तो अब जीवित न´् अखने कोई पार।
देवयानी ई घटना सुनके बनल बड़ी निर्वाक्
चक्कर आल गिरल धरती पर प्रेम बड़ी हल पाक।
चिंताकुल गुरू छींटा देके ओकरा ओजा उठैलका,
मंत्रजाप से देवयानी के शीघ्र होश में लयलका।
देवयानी बढ़ रहल असुर सब सबके बड़ी घमंड,
सबके देवे पड़तै हमरा सोच के बड़का दण्ड।
कच जैसन सुंदर सपूत ई धरती पर न´् मिलतै,
ऐसन सुंदर मनुज देव सुत बीच न कोई खिलतै।
प्यार-दुलार देलों जेकरा ओकरे राक्षस संहारे,
ई कैसन अन्याय कि आरमवासी के ऊ मारे।
हाय पिताजी तोंही बढ़ैला सब राक्षस के मन,
मनुज देवता साथ तोरो ऊ कर रहलो गंजन।
खिलल फूल मुरझा हें जैसे शुक्रसुता ऊ फूल,
कचके प्राण हरण करना राक्षस दलके बड़ भूल।
हाय पिताजी कच हम्मर चेतना, प्रेरणा रूप,
कच जीवन के अंधियारा के हल अगहन के धूप।
कच निर्मल हल, कच हल सज्जन, कचहल बड़ी तपस्वी,
देव और नरके समाज के बीच बड़ा वर्चस्वी।
स्वर्णिम काया में सुंदरता के हल रूप सलोना,
धरती पर मृण्मय सब लेकिन ऊ हल सच्चा सोना।
कचके बिना हमर जीवन में अइलो रात अंधरिया,
अब मावस के रात अंधेरी, कैसे आत इंजोरिया।
कानो लगल देवयानी गुरु ओकरा देलका ढाढस,
देवयानी कहलक कि पिताजी अब जीवन हे मावस।
मंत्र जगावो, कचके जियावो तभिए हमर जीवन,
जे विद्या ऊ सीख रहल हें करो प्रयोग संजीवन।
शुक्राचार्य सुताके सुनके चलला घटना-पास,
चलल देवयानी भी साथे जीवन के ले आस।
चलला शुक्राचार्य तो पथ में होवे लगल इंजोर,
खिंचल जा रहल शुक्रसुता भी पकड़ प्रेम के डोर।
वन प्रदेश रेवातट पर कचके टू खण्ड शरीर,
गुरु के साथ देवयानी के लखके उमड़ल पीर।
पढ़ के मंत्र कमंडलु जल छींटो लगला मृत तन पर,
संजीवन के गुरु प्रभाव से जागल कच तब सत्वर।
देवयानी गुरु के पाकर हो गल धन्य हल काया,
कचके अंग-अंग में श्रद्धा गुरुऋण खूब समाया।
दुनू पैर पर गिरके कच गुरु के चरण वंदना कैलक,
दोनों के अपूर्व महिमा के गीत मने मन गैलक।
बेटा चल आश्रम में फैलल रात गहन अंधियारा,
तांे आश्रम, मानवता के सेवक सच्चा ध्रुवतारा।
आश्रम, में तीनों अयला फैलल सगरो फेर हर्ष,
मानवता के सेवा ले कच बलि देलक उत्कर्ष।
गुरु देलका संदेश कि कच अब सावधान हो रहिहा,
राक्षस के मारक चंगुल से बचल देवनर तहिया।
जारी हे त्रिलोक में हिंसा आर सगर उत्पात,
राक्षस सब तो रोज कर रहल हें मारक आघात।
छांटे अंधकार के सगरो तोड़ें स्वार्थ के घेरा,
बेटा बनें सूर्य तों सगरो लावें नया सबेरा।