तोड़ तन से मोह, मंदिर से लगाया,
बोझ रज का फेंक, प्रस्तर का उठाया,
भर लिया है अंक में अब कल्पना को!
हो गया क्या आज मेरी चेतना को!
प्राण का स्नेहिल दिया, धृत का बनाया,
मूर्ति के निर्जीव चरणों पर चढ़ाया,
दोष देना व्यर्थ है, मृदु वेदना को!
हो गया क्या आज मेरी चेतना को!
सांस का हर तार वीणा हो गया है,
राग जिस पर डोलता बिल्कुल नया है,
मोह लेगा जो प्रणय की अर्चना को!
हो गया क्या आज मेरी चेतना को!
कान्ति भर दे जो सहज अंत:करण में,
सत्य को जो डाल दे ला-कर शरण में,
सिर झुका सौ-बार ऐसी वंचना को!
हो गया क्या आज मेरी चेतना को!