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त्रयी / अंकावली / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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त्रिवृत प्रणव, त्रिपदा गायत्री, त्रयी विदित पुनि वेद
गत - आगत -अनागतक भेदेँ, काल त्रिविध निर्वेध।।1।।
अभिद्या काली आदि-विदित लक्षणा कलित लक्ष्मीक
अन्तर्वाहिनि सरस्वती, व्यंजना शक्ति शाब्दीक।।2।।
गुण माधुर्य धुर्य, ओजक खोजहिँ सर्वत्र प्रसाद
उत्तम मध्यम अधम, अपेक्षाकृत त्रित कविता - स्वाद।।3।।
रीति निदान गुणक सन्धानहि, तीनि प्रधान प्रमान
शब्दागम पर्याप्त आप्त, परतच्छ, स्वच्छ अनुमान।।4।।
प्रकृति, पुरुष, पुरुषोत्तम, भगवद्-वाणी त्रित्व विधान
सत रज तम गुन, कर्म अकर्म विकर्मक क्रमिक प्रमान।।5।।
थिर दृढ़ सत पुनि, चंचल रज गुनि, मोह-जड़ित तम तोम
अरति-विरति-रति, थिति-गति-अवगति, त्रितय अनल-रवि-सोम।।6।।
तल अन्तस्तल, उपर गगन घन, अवनि सतह, तिहु लोक
सप्तक तिन गुनि तार मन्द्र, मध्यावधि स्वर - आलोक।।7।।
मन - वचनक सङ कर्म, लोकमत स्वमत वेदमत शोधि
साधन साधक साध्य समाहित, त्रिपद सिद्ध अविरोधि।।8।।
उच्चावच समतल थल, शीतल करइत देश-दिगंत
जीवन - तृन मिलि त्रिगुन त्रिवेनी, पहुँचओ निर्गुन अत।।9।।