भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

थकान, आराम और आदमी / लालित्य ललित

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


दौड़ते-दौड़ते
इतना थक जाता है आदमी
इतना सब लक दक जोड़ते
आदमी में
आदमी कहां रह पाता है
वह तो
आवश्यकताओं की पूर्ति करता
महज व्यवस्थापक ही होता है
और परिवार होता है
असली ग्राहक
जो नहीं पूछता
कि
क्यों इतनी तेजी से
दौड़ रहे हो ?
पर यह जरूर करता है
पापा
इस बार दीवाली पर
एल.सी.डी. वाला टी.वी. ही
लायेंगे
पत्नी की फरमाईश अलग
वह दौड़ रहा है अनवरत
क्या उसे ही दौड़ना था ?
इतना दौड़ा
इतना दौड़ा
कि कूच कर गया मोहल्ला
घर-परिवार
बड़ा अच्छा था जी बंदा !
घर परिवार के बारे में ही -
सोचता था
संस्कारिक बहुत था
आए-गयों की इज्जत
करता था
पर जी होनी बड़ी बलवान है
उसे क्या पता था
कि यह हो जाएगा
पीछे परिवार का
क्या होगा ?
रोने-धोने वाले चले गए
परिवार में कुछ
दिन शांति रही
आज एल.सी.डी. टी.वी.
टैम्पू से उतर रहा है
परिवार में खुशियां लौट -
आई हैं !
मोहन ‘ऊपर’ से सब -
देख रहा है
और दे रहा है आशीष
अपने घर को
अपने सदस्यों को
- कितने अच्छे थे
सोनू के पापा
रह-रह कर मालती -
की आंखें भर आती हैं
उस दिन टी.वी. का भुगतान
कर के लौटे थे
जब यह हादसा हुआ था
करवा चौथ
दिवाली दशहरा
सब त्यौहार
आते चले गए
मेहमानों की दिलासा अब -
ठंडी हो गई
सबके काम धंधे जो हैं
अब समय ही कहां है
मालती ने बात समझ ली है
उसने जीना सीख लिया है
अब वह करेगी सोनू के -
पापा का सपना साकार !
उसके कदम तेजी से
द़तर की तरफ
बढ़ चले थे ।