भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
थकित सा पथिक / विनीत मोहन औदिच्य
Kavita Kosh से
					
										
					
					धरा पर बढ़ा पाप कैसे बचाऊँ 
भटक राह अपनी गले विष लगाऊँ
रहा भोग जीवन सहारा न पाया
सही धूप आतप रही दूर छाया
कभी सच न बोला बनाया बहाना 
हुआ मार्ग दुस्तर नहीं है ठिकाना
बंधा श्रंखला में मिली तप्त कारा
गंवाया सभी सुख मिला मीत हारा।
प्रभु मौन तोड़ो भुजा तुम उठाओ
मुझे पापियों के दमन से बचाओ
शरण में मुझे लो रखो लाज मेरी
मधुर तान छेड़ो कृपावंत तेरी। 
थकित सा पथिक मैं तनिक भी न सोता
सकल कर्म अपने करूँ भान रोता।। 
-0-
	
	