थोड़ा-सा पानी ढेर सारा नमक / हेमन्त कुकरेती
कल के किसी बाज़ार में जब उसके रास्ते खुले होंगे
मैं अपने चमड़े के बदले कपड़े लेना चाहूँगा
साफ़ कहूँ कि चाहिए तो मुझे लोहा पर मैं उसे उठा नहीं सकूँगा
भूख के बदले तब रोटी की ज़रूरत मुझे नहीं पड़ेगी
आज मैंने सोचा तो हँसने लगा कि
मैं ऐसी कितनी वारदातों में बच निकला
नग्नता के विशाल सुनसान में मुझे शर्म नहीं आयी
मेरे साथ सभी मेरी ही तरह थे
अपने वल्कल वस्त्रों को पहने हुए हमें
अपने नाखूनों पर यकीन था
यकीन था उस सभ्यता पर जो हमारे हँसने से
टूटने की कगार पर काँप रही थी
हमारे दाँत दिखाई न दें इसलिए हमने
अपने चेहरों पर बाल उगा लिये
काल हमारी देह पर जाने
किस अनश्वर मन्त्र को लिख रहा था
हम पानी में नहीं गलते
धूप में झुलसने का डर भी हमें नहीं था
हम तो उसे बचाने के लिए अपनी बनाई दीवारों में जा छुपे
हम ध्वनि के इशारे समझने लगे
स्पर्श के इरादे भी हमें ज्ञात हो गये
हमने अरण्य में वनस्पतियों को फूँक डाला
अपने समुदाय की तरफ़ से मैं कहता हूँ कि हड्डियाँ कहीं और
गिरवी हैं हमारी
हमें शरण देने के नाम पर बहस बाद में करना
अभी तो हमें थोड़ा-सा पानी दो
जिसमें ढेर सारा नमक हो...