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थोड़ा सा रो लेती हूँ / छाया त्रिपाठी ओझा
Kavita Kosh से
अन्तर्मन में सुस्मृतियों के बीज रोज बो लेती हूँ।
याद तुम्हारी आती है तो थोड़ा सा रो लेती हूँ।
प्रश्न कई जब उठकर दिल में ,
करने लगते खींचातानी !
गढ़ते नहीं भाव भी आकर
फिर से कोई नयी कहानी !
नयनों में ले नीर सुनो तब, पीर सभी धो लेती हूँ।
याद तुम्हारी आती है तो थोड़ा सा रो लेती हूँ।
सौतन बनकर बैठ गयी है,
अपने द्वारे भले निराशा !
मगर छिपी इन संघर्षों में
जाने कैसी कोमल आशा !
पलकों में स्वप्निल इच्छाएँ, रखकर मैं सो लेती हूँ।
याद तुम्हारी आती है तो थोड़ा सा रो लेती हूँ।
दिखे नहीं अपनी भी छाया
धुंध कभी जब आकर घेरे !
पथ में बन अवरोध खड़े हों
पहरों तक घनघोर अँधेरे !
दीप जला तब नाम तुम्हारे,संग सदा हो लेती हूँ।
याद तुम्हारी आती है तो थोड़ा सा रो लेती हूँ।