भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दग्ध भोगी तृषित बैठे... / कालिदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: कालिदास  » संग्रह: ऋतुसंहार‍
»  दग्ध भोगी तृषित बैठे...

दग्ध भोगी तृषित बैठे छत्र से फैला विकल फन

निकल सर से कील भीगे भेक फन-तल स्थित अयमन,

निकाले सम्पूर्ण जाल मृणाल करके मीन व्याकुल,

भीत द्रुत सारस हुए, गज परस्पर घर्षण करें चल,

एक हलचल ने किया पंकिल सकल सर हो तृषातुर,

प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!