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दरवाजे़ पर साँकल / दिनेश जुगरान
Kavita Kosh से
कहीं दूर हवाओं में
तैरते
प्रार्थनाओं के स्वर
मन्दिरों की सीढ़ियों से
फिसलती
धीरे-धीरे
सूखे पीले पत्तों की आवाज़
और लहरों से टकराती
शंख-ध्वनि कांपती हुई
सुन रही है
चिड़िया
सहमी बैठी
एक टूटी दीवार
के सहारे
प्रतीक्षारत-
कि जब घर लौटे
थकी-हारी शाम
तो बाहर
दरवाजे़ पर
लगा दे साँकल
हो सकता है
प्रार्थना हो जाए
सफल
और मन्दिर की सीढ़ियों पर
अंकित हो जाएँ
कुछ पदचिह्न
और शंख की ध्वनि
हो जाय स्थिर
दीवार पर बैठी चिड़िया
उड़ नहीं पा रही है
रात की आँखों से
नींद ग़ायब है
प्रार्थनाओं के स्वर
मन्दिर की सीढ़ियों पर ख़ामोश हैं