दर्द / विजय कुमार पंत
कर्राहती धमनियों में
चीखता रक्त
आँखों से टपकता
गर्म पानी
घुटती सांसों में
दम तोड़ती जुबान
दर्द है
बिल्कुल ठिठुरती ठंडक की
तरह सर्द है
हाँ ये “दर्द ” है
दर्द होना
कुछ देर रहना
फिर ख़त्म हो जाना
अपनी ही आव्र्त्ति में
यह है “सहना ”
कभी दर्द
महसूस होता है
जैसे कुछ परिचित से
नाम
जो आंसुओं के बीच
मुस्कुराते रहे
बताते रहे
दर्द श्वेत है ,
या श्याम
दर्द ,
ज़ख्मों का ,
बहुत मीठा है
हमने दिल पर
लगे गहरे घावों से
ये सीखा है
कि और कोई साथ नहीं
निभाता
दर्द
सुबह ,शाम ,
दिन ,रात ,कहीं भी कभी भी
चला आता है
भूल जाने पर विवश करता है
आंसुओं में मुस्कुराता है
दर्द
बार बार आता है
कुछ देर ठहरता है
चला जाता है
पर अक्सर आ जाता है
बेहतर है ,
तुमसे कहीं
जो हमको
अंधेरों में जीना
सीखता है
लूटता नहीं
लड़ने का नया
हौसला दे जाता है