दस मुक्तक / गिरिराज शरण अग्रवाल
1.
यों तो ऐ दुनिया सभी कुछ है तेरे बाज़ार में 
दुख भी है, आराम भी है, मान भी अपमान भी 
देखना यह है कि किसने किस तरह से तय किया 
ज़िंदगी का रास्ता मुश्किल भी है, आसान भी
2.
भूल किसकी थी कि जानें आँकड़ों में ढल गईं
आदमी अब आदमी कब रह गया, गिनती बना 
शक्ति थी बाहों में जब तक, हाथ फैलाए नहीं 
कर्म ने जब हार मानी, क्या बना? विनती बना
3.
ज़िंदगी है हर किसी की आग में जलने का नाम 	               
ज़िंदा लोगों में भी अक्सर ज़िंदगी होती नहीं  	             
जिसको हम कहते हैं जीवन के सफ़र की भाग-दौड़   	                         
उस सफ़र में कोई मंज़िल आख़िरी होती नहीं
4.
चिंता न की तो देख उखड़ने लगा है फ़र्श 	             
कुछ ही बरस हुए हैं हवेली बने हुए 	                
गाँठों को उनकी खोल, उन्हें भी तो मुक्त कर 	                  
अब तक हैं कितने लोग पहेली बने हुए
5.
होने को तो हर सोच में, हर साँस में तुम हो   	           
पर रास्ता बिन साथ तुम्हारे नहीं कटता!  	          
यह सच है कि सपने भी ज़रूरी हैं मगर दोस्त  	               
जीवन कभी सपनों के सहारे नहीं कटता
6.
बूढ़ी न हों ख़याल की अल्हड़ जवानियाँ 
आँखों में धूप, बालों में सावन सजा रहे 
घर-घर के आँगनों में महकते रहें गुलाब 
तारों से आस्मान का आँगन सजा रहे
7.
सभी को देखता है, जाँचता है, प्यार करता है 
वह सैलानी है मन मेरा किसी से कुछ नहीं लेता 	
सभी के काम आ, लेकिन न बदले की तमन्ना रख  
कि सूरज रोशनी देकर ज़मीं से कुछ नहीं लेता
8.
उजाला बाँटते रहना दीये का लक्ष्य होता है 
सुबह तक जलते रहने का गिला बाती नहीं करती  
हवा का तेज़ झोंका ठीक है, झकझोर देता है 
मगर क्या झुक के शाख़ अपनी कमर सीधी नहीं करती
9.
कुआँ ही खोद न पाओ तो फिर गिला कैसा? 
ग़लत कहा कि ज़मीनों में जल नहीं मिलता 
इक इंतज़ार की मुद्दत भी दरमियान में है 
 किसी को पेड़ लगाते ही फल नहीं मिलता
10.
सिमटकर बैठ जाने से नहीं आता है परिवर्तन 
अगर हम ख़ुद नहीं बदले, ज़माना कैसे बदलेगा 
नहीं सीखा है तुमने मित्र, सच के रू-ब-रू होना 
तुम आँखें मूँद भी लोगे तो क्या सूरज का बिगड़ेगा
	
	