दादाजी का सन्दूक / संजय कुमार शांडिल्य
मेरे पिता को याद हैं
चमड़े के बेल्ट से बँधी
ये घण्टियाँ
जब
दूर से सुनाई पड़ती
दादा जी पानी मिलाते
नांद में
जान जाते
गोला बैल
लौटते हुए
खेतों से
झटक रहा माथा ।
पिता को याद है
तब दादी
अन्तरिक्ष को
दिखाती होती
दीया।
आज भी
बैल की
पीठ की तरह
चिकनी हैं घण्टियाँ।
नदी पानी पहनकर
नयी दुल्हनिया लगती
बरसात में
ख़ाली घड़े में
समाती पानी की आवाज़
जगाती धनहर
खेतों की माटी।
पिता को याद है
खेतों को
नाम से पुकारते
दादा जी।
पिता को याद नहीं
ठीक-ठीक
कौन से
नाम थे
खेतों के।
पिता को याद नहीं
किस बरसात में
मिट्टी के घड़ों-सी
भरी नदी।
किस बरस मरा
गोला बैल।
सुबह अब
खेतों की मिट्टी पर
मिलते हैं
भालू के पंजों
के निशान।
एक म्यूजियम
से कम नहीं है
दादा जी का सन्दूक।
मैं नहीं जानता
आने वाले दिन
कैसे कटेंगे
पॄथ्वी के
मुझे कितना
याद रहेगा
छोटी-छोटी
पीतल की घण्टियाँ
पहन जब
दूर खेतों से लौटता
अपना माथा झटकता
गोला बैल
नांद का
पानी बदलते
दादा जी
तब दादी
दिखलाती थी
अन्तरिक्ष को दीया।