दास व्यापारी / अज्ञेय
हम आये हैं
दूर के व्यापारी
माल बेचने के लिए आये हैं :
माल : जीवित, गन्धित, स्पन्दित
छटपटाती शिखाएँ रूप की
तृषा की ईर्षा की, वासना की, हँसी की, हिंसा की
और एक शब्दातीत दर्द की, घृणा की :
मानवता के चरम अपमान की!
चरम जिजीविषा की!
माल : किन्हीं की माताएँ, बहुएँ, बेटिएँ, बहनें :
किन्हीं पीछे छूट गयों की, लुट गयों की,
जो बिकेंगी, क्यों कि बेची जाने को तो लायी गयी हैं
यहाँ की हो कर रहने,
यही सहने अपना हो जाना किन्हीं और की माताएँ, बहुएँ,
बेटिएँ, बहनें!
जो रौंदी गयीं, रौंदी जाएँगी
और यों मरेंगी नहीं, टिकेंगी।
हमारा तो व्यापार है :
घर हमारा सागर पार है।
आप का माल : हमारा मोल :
फिर आप का संसार है
हमारा तो बेड़ा तैयार है।
हम फिर आएँगे
पर इन्हें नहीं पहचानेंगे
नया माल लाएँगे, नया सोना उगाहेंगे!
और आप भी ऐसा ही चाहेंगे
आप भी तो पिछला इतिहास नहीं मानेंगे!
दो ही तो सच्चाइयाँ हैं
एक ठोस पार्थिव, शरीर-मांसल रूप की;
एक द्रव, वायवी, आत्मिक वासना की धधक की।
बाकी आगे मृषा की, आत्म-सम्मोहन की
असंख्य खाइयाँ हैं!
इतिहास! इधर इति, उधर हास!
फिर क्यों उसे ले कर इतना त्रास?
क्या दास ही बिकते हैं,
इतिहास नहीं बिकता?
बोली लगाइए-माल ले जाइए
दाम चुकाइए
हमें चलता कीजिए
फिर रंगरलियाँ मनाइए
पीढ़ियाँ पैदा कीजिए
और पीढ़ियों का इतिहास रचवाइए!
हम फिर आएँगे :
हमारा व्यापार है।
आप तो मालिक हैं :
आप पर हमारा दारोमदार है।
नयी दिल्ली, जुलाई, 1968