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दिक्पाल / प्रकीर्ण शतक / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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इन्द्र - सहस नयन रहितहुँ नय न, अहि-रिपु अहिला-जार
इन्द्र इन्द्रियक कारणहि सुर रहि असुर सिकार।।1।।
अग्नि - शशि रवि निशि वा दिन गगन, नियत उदित दुतिमंत
अनल चिरंतन जोति पुनि घर-घर ज्वलित निरंत।।2।।
वरुण - वरुण सिंधु संस्थान रहि, गहि पश्चिमक विचार
पाशी बनि अधरहु मदिर वारुणीक परचार।।3।।
कुवेर - निधि-अधिपति धनपति विदित, अलकापति शिव-मीत
उर्वशीक वश कुबेरक नाम कुनाम विगीत।।4।।
यम - पिता दिवसपति, वास पुनि दक्षिण, धर्मक राज
किन्तु अंतके अंतमे महिसबाड़ यमराज।।5।।
ईशान - पूर्व न उत्तर पक्ष दिस बिच-बिच कोन दबाय
ईशानक ई शान अछि दिक्पालके कहाय।।6।।
वायु - वायु आयु छथि विश्वहिक दिक्पति देव उदार
अंधड़ झाँट बिहाड़ि पुनि यदि किंचितो विकार।।7।।
नैऋत - अशुचि विरुचि ऋतु रहित नित नैऋत निर्घृन चित्त
यम-पाशी बिच बसथि जेँ उचित वहिष्कृत नित्त।।8।।
ब्रह्मा - चतुर न चतुरानन, कमल - आसन कमले आस
अड़चन अरचनमे चरम प्रथम सृष्टि रचि हास।।9।।
अनन्त - अतल पताल निकायमे रहथु नुकायल अन्त
सहस शिखर बसि दिशि अधर विषधर नाग अनन्त।।10।।