दिनकर / ऋता शेखर 'मधु'
पूर्व दिशा से लाल चुनरिया, ओढ़ धरा पर आते हैं।
ज्योति-पुँज हाथों में लेकर, शनै-शनै बिखराते हैं॥
सफर हमारा चले निरंतर, घूम-घूम बतलाते हैं।
अग्नि-कलश माथे पर धरकर, वह दिनकर कहलाते हैं॥
स्वर्ण रश्मियों की आहट से, खेतों ने अँगड़ाई ली।
हाथ उठे जब सूर्य अर्ध्य को, जीभर जल तुलसी ने पी॥
उषा संगिनी साथ चली है, पंछी राग सुनाते हैं।
भ्रमर निकलते पुष्प दलों से, सूर्यमुखी खिल जाते हैं॥
भोर-साँझ की बात निराली, नभ लगते नारंगी हैं।
हर्ष रागिनी और उमंगें, ये सब मेरे संगी हैं॥
श्वेत रंग की किरण हमारी, सबको यह समझाते हैं।
पहनें जब सतरंगी कुर्ता, इंद्रधनुष बन जाते हैं॥
सहती जाती ताप धरा जब, हम भी तो घबराते हैं।
बाँध पोटली में सागर तब, अम्बर को दे आते हैं॥
मेघों के पीछे से छुपकर, मोर देख हरसाते हैं।
बूँदों में भर प्रेम सुधा रस, छम-छम नाच दिखाते हैं॥
तम चाहे जितना काला हो, उज्ज्वलता से हारा है।
क्षणिक धुंध से निपट बढ़ेंगे, यह संकल्प हमारा है॥
साँझ ढले हम गए झील में, जग को यह दिखलाते हैं।
सच तो यह है जीवन देने, दूर देश को जाते हैं॥