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दिन ये ज़ोर-ज़बरदस्ती के / नईम

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दिन ये ज़ोर-ज़बरदस्ती के,
जंगल के हों या बस्ती के।

धुर व्यक्तित्व हुए अखबारी
आधे से इनमें सरकारी,
नकली के असली विज्ञापन।
सुरुचि, शील खालिस दरबारी;
विगत कहीं खो गई हमारी,
दिन आए फाइल नस्ती के।

ग़ैरों के हाथों में चोटी
सोच-समझ हो या फिर रोटी,
बिला शर्त ही किए समर्पण
फूटे कान, आँख कजरोटी;
पीर, मलंग प्रतीक बुढ़ाने,
पते गु़मे अपनी हस्ती के।

खेत हमारे उनकी फसलें
मूल छोड़कर संकर नस्लें,
चीन्ह नहीं पाते शीशे में
भदराई अपनी ही शक्लें;
खड़े हुए यमदूतों से दिन
परवाने लेकर गश्ती के।

महँगी पीकर अमर हुए दिन,
मरते हैं पीकर सस्ती के।