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दिन रहा घिरते धुओं का / कुमार रवींद्र
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पूछिए मत
रात-भर क्यों रही चिड़िया
इस क़दर बेचैन
वही...जिसने
सुरों का जादू किया था
दूध की मीठी नदी का जल
तभी हमने पिया था
रात जादू वही टूटा
नदी सूखी
उधर चिड़िया - इधर हम बेचैन
दूध में घोला ज़हर
है बँट रहा पूजाघरों में
खोजती ही रही चिड़िया दूब
दिन-भर बंजरों में
दिन रहा घिरते धुओं का
और अपनी ही तपन से हो रहा
पूरा शहर बेचैन
कल हुआ जो था शहर में
वही होता आज भी है
नीड़ चिड़िया का जहाँ पर
वहीं रहता बाज़ भी है
बाज़ की चालें फली हैं
आज भी चिड़िया रहेगी
रात-भर बेचैन