दिन लिपि / सुकुमार चौधुरी / मीता दास
वोट की आग धीरे-धीरे बुझती जा रही है,
चारों तरफ इन्दिरा का जयगान,
यह सोचने पर मजबूर करता है ठण्डे मनुष्यों को
चित्तो<ref>चितरंजन महतो</ref> कुछ प्रिय मनुष्य आकर
जीत के उल्लास को पोंछ देते
बस स्टॉप पर ही प्रिय<ref>प्रियरंजन दास मुंशी</ref> का शिविर
रात के आठ बजे मैं लौट रहा हूँ अकेला ही घर।
ठण्ड का धुआँसा फैला हुआ है चारों ओर।
पान की गुमटियाँ एक-एक कर हो रही है बन्द।
राख के ढेर पर कुण्डली मार कर बैठा हुआ है मरियल कुत्ता।
तुलसी के चौरे के नीचे जलती रूमा के घर का म्लान दीपक।
बहुत दिनों से रूमा को नहीं देखा।
मरून रँग की साड़ी गाढ़े नीले रँग का कार्डिगन, ताम्बिया बदन
रुमा तुम कहाँ चली गई ?
किस घने देवदारु के द्वीप पर बस गई हो जाकर?
गृहस्थ घर से फूट निकला है रेडियो का अन्तर्नाद।
स्टेशन वाले मोहल्ले की तरफ़
तीन आदमी चले जा रहे है कथरियाँ लपेटे।
सिगरेट फेंक मैं भी घुस जाता हूँ अपने ठिकाने में।
हठात कूड़े पर से बाँग देने लगता है
किसी का आवारा मुर्गा।
मूल बांग्ला से अनुवाद — मीता दास