भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिल्ली (दो) / इरशाद अज़ीज़
Kavita Kosh से
बगत रै रच्योड़ै इतियास रा पाना
जद कदैई उथळूं
म्हनैं हर पानै माथै दीखै तो बस
हंसती दिल्ली
रोंवती दिल्ली
बिल-बिलांतवी दिल्ली
ठाह नीं दिल्ली मांय
कितरी’क
दिल्लियां और रैवै है
सगळां नै लुभावै है
बुलावै है
सुपनां में आवै है
कैवणिया कैवै
लाल किलै आळी दिल्ली
संसद आळी दिल्ली
फलाणी दिल्ली
पण सोचतां कदैई नीं देखी दिल्ली नैं
राजघाट रै होवतां
इतरो हाको क्यूं करै
आ दिल्ली!