दिल्ली बहुत दुख देती है / सुरेन्द्र स्निग्ध
दुख की घड़ियों में भी
क्यों तो भाई
दिल्ली में हर जगह आपको
ढूँढ़ती रहीं मेरी आँखें
पता ठिकाना तो जानता था
चाहता तो मिल भी लेता
लेकिन दिल्ली में, पता नहीं क्यों
किसी परिचित या
साहित्यिक मित्रों से
मिलने का दिल नहीं करता
फिर भी
कभी काफ़ी हाउस में
गोमती गेस्ट हाउस की कैण्टीन में
या कि साहित्य अकादमी के पुस्तकालय में
मेरी आँखें
ढूँढ़ती रहीं आपको
असल में मेरी आँखें
परखना चाह रही थीं कि
दिल्ली जैसे क्रूर शहर में
कैसे रह रहे हैं आप ?
एक भावुक,
ग़रीब किसान का बेटा
बिहार के जनसंघर्षों से
सक्रिय रूप से जुड़ा हुआ युवक
कैसे रह रहा है दिल्ली में
कैसे कर रहा है गुज़र-बसर ?
नए अनुभवों को मैं
देना चाहता था नया आयाम
अच्छा हुआ
नहीं मिले आप
अगर आप बदले रूप में मिलते
(जैसाकि मैं नहीं चाहता !)
और दिल्ली में यह तो बदलना ही है,
मुझे तकलीफ़ होती
(ऐसे ही दिल्ली कम तकलीफ़ देती है क्या !)
संगठन, पुराने कामरेडों
तथा अन्य मित्रों से
अलग होने का जैसा मुझे दुख हुआ है,
आपसे मिलकर शायद वह
सघन ही होता
दिल्ली
बहुत दुख देती है ।