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दीनबन्धु! करुणा-वरुणालय! / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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दीनबन्धु! करुणा-वरुणालय! सहज पतितपावन स्वामी।
दीन-हीन, संतप्त, पतित, मैं सत्पथ-विमुख, कुपथगामी॥-टेक॥
नहीं धर्म-निष्ठा जीवनमें, नहीं सत्कर्मोंका आचार।
फिर निष्काम-भाव, प्रभु-‌अर्पित कर्मोंकी चर्चा बेकार॥
मलिन हृदयमें होता कैसे नित्य-‌अनित्य वस्तुका जान।
बिना विवेक विराग नहीं, वैराग्य बिना कैसा विज्ञान।
भोग-वासना‌ओंमें धंसकर जीवन बना काम-कामी॥-१॥-दीन०
ममता और अहंताका जीवनमें कभी न नाश हु‌आ।
ममता लगी न प्रभु-चरणोंमें, ‘अहं’ न प्रभुका दास हु‌आ॥
जगके प्राणि-पदार्थोंमें ममताका सदा विकास हु‌आ।
अहं-भावका तनमें, मनमें, कृतिमें नित्य प्रकाश हु‌आ॥
‘मैं-मेरे’में मत्त, दीखती नहीं मुझे अपनी खामी॥-२॥-दीन०
नहीं प्रेमका लेश हृदयमें, भक्ति-भावका बीज नहीं।
बड़ी-बड़ी व्याख्या‌एँ करता, पर अपने घर चीज नहीं॥
कहता-’प्रभुपर श्रद्धा रखो’, निज मन धीज-पतीज नहीं।
प्रीति-प्रतीति पापमें संतत, मनमें कुछ भी खीझ नहीं॥
तन, मन, वचन-सभीसे मैं अघभरे अधःपथका गामी॥-३॥-दीन०
अपने अघ-सागर अगाधको सदा छिपाता मैं रहता।
रज-सम पर-‌अघ-‌अङङ्कुरको पर्वतकर मैं सबसे कहता॥
पर-सुख देख जला करता मैं, पर-पीड़ामें सुख लहता।
पर-निन्दा प्यारी अति लगती, पर-यश दुःखसहित सहता॥
निन्दनीय मेरा जीवन यह, होगा क्यों न नरक-गामी?॥-४॥-दीन०
विविध वेष धर विविध भाँतिसे लोगोंको नित मैं ठगता।
भक्ति-प्रेम, वैराग्य-जानके साधन कह-कह मुँह लगता॥
ऊपरसे निःस्पृह-सा रहता, स्वार्थ-सिद्धिमें नित जगता।
काम-भोगके साधनमें संलग्र, नहीं पलभर भगता॥
ऐसा मैं अति नीच, असुर-मति, दुष्कृति, सहज नरक-धामी॥-५॥-दीन०
हु‌आ अमिट दृढ़ निश्चय अब तो, मुझे कहीं भी ठौर नहीं।
मुझको रखें ऐसे शरणद आप सरीखे और नहीं॥
घृणित, नराधम, नरक-कीट, मेरे पापोंका छोर नहीं।
कर विश्वास आ पड़ा प्रभुके चरणोंमें, कुछ जोर नहीं॥
होकर आज अनन्य अघी मैं, हूँ प्रभु-पदका अनुगामी॥-६॥-दीन०