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दीप बहारों के / कल्पना 'मनोरमा'
Kavita Kosh से
इतराते हैं कहीँ महल मॆं
दीप बहारों के
अन्धकार मॆं कहीँ खो रहे
सदन हज़ारों के
थके-थके दिन भटक रहे हैं
कुहरे मॆं पागे
दाँव खेलती नियति कलमुँही
रात-रात जागे
झिझक रहा सूरज भी आते
घर लाचारों के
तोड़ रहीं दम यहाँ हवाएँ
चुप आते-आते
व्यतिक्रम के मारे-से बीतें
दिन रोते-गाते
हृदय कँपा जाती है पछुआ
इन बेचारों के
सौदागर ने क़ैद रखी है
ख़ुशबू झोली मॆं
अर्थ ढूँढती फिरे वेदना
गूँगी बोली मॆं
कैसे पहुँचे नाव किनारे बिन
पतवारों के