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दीवारें / अहिल्या मिश्र

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दीवारें खड़ी बुला रही हैं हमें
मौन चुप-सी सर्द युगों की कहानी सुना रही हैं हमें।
कब हम बढ़ेंगे? पग-पग चलेंगे
ठुमक-ठुमक इसकी सीढ़ियाँ चढ़ेंगे
भटकों-सा रास्ता दिखा रही हैं हमें
दीवारें खड़ी बुला रही हैं हमें।

पुराण-पुरुष भी पनपा होगा,
राम-रहीम-कृष्ण-कबीर संग
वही दरवाजे आज समझा रही है हमें
दीवारें खड़ी बुला रही हैं हमें।

पब्लिक स्कूल नाम है जिसका
उसमें केवल समृद्धि बसती
म्युनिसिपल का अंगना ही तो बचपन छुड़ा रहा है हमें
दीवारें खड़ी बुला रही है हमें।

अनपढ़ हो कर भी
भाग्य और विधाता जैसी
निर्भरता का पाठ पढ़ा रही हैं हमें
दीवारें खड़ी बुला रही हैं हमें।

कभी घर कभी बाहर
अभावों का समंदर पार खड़े
जिंदगी का पाठ पढ़ा रही हैं हमें
दीवारें खड़ी बुला रही हैं हमें।

उन्मुक्त त्राश और घुटन के
इस घने मानव वन में
मुश्किलों का दामन थमा रही हैं हमें।
दीवारें खड़ी बुला रही हैं हमें।

हम न होते तो कौन होता?
तुम्हारी धूल भरी गाथा सुनने को
व्यवस्था के चूर में कील बना रही हैं हमें
दीवारें खड़ी बुला रही हैं हमें।