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दुआ कर आरज़ू सोई मगर / पूजा बंसल
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दुआ कर आरज़ू सोई मगर चिठ्ठी नहीं आयी
सुकूं और नींद भी खोई मगर चिठ्ठी नहीं आयी
जलाकर आस का दीपक निपोया प्रीत से आँगन
अदद दहलीज़ तक धोई मगर चिठ्ठी नहीं आई
सताने से मनाने तक वो फिर से रूठ जाने तक
मुसलसल याद हर रोई मगर चिठ्ठी नहीं आयी
मुनासिब मौसमों में गोद कर बीजों की हिचकी को
फ़सल उम्मीद की बोई मगर चिठ्ठी नहीं आयी
न तल्ख़ी है कलम से और न रंजिश काग़ज़ों से है
शुबा क़ासिद पे ना कोई मगर चिठ्ठी नहीं आयी