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दुख का उत्सव / केशव
Kavita Kosh से
धरती का सुख
जब-जब बदलता है
उसके दुख में
मनुष्य के सुख में लगती है सेंध
जानता है मनुष्य
फिर भी मानता नहीं
मानता है
धरती के दुख का उत्सव
धरती देख-देख मुस्कुराती
मनुष्य की छाती पर लोटते साँप।