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दूरियाँ / विपिन चौधरी
Kavita Kosh से
मेरी गर्दन
तुम्हारे कन्धे
प्रेम में बस
इतना फ़ासला ही काफ़ी है
हमारी नज़दीकियों का क़िस्सा
प्रेम के आँगन में उतरने के बाद
हर बार एक नया आकार ले बैठता है
हर बार इस नए क़िस्से की नोक-पल
दुरुस्त करनी पड़ती है
जब हमारे बीच की दूरियों को फीता
नाप नहीं सका
तो फ़ासलों का मीलों लम्बा सिद्धान्त
सिरे से जूठा पड़ गया
जब दूरियों ने फ़ासलों को
मापने की कोशिश की
तो प्रेम के पाँवों पड़ा
जूता छोटा पड़ने लगा
वैसे भी जीवन को
प्रेम में घोल देने से
कभी अच्छा ज़ायका नहीं बन पाया
वैसे ही जैसे
लम्बे अरसे से हमने सपनों का तिलिस्म जगाया
पर वहाँ से कोई राजकुमार प्रकट नहीं हुआ
एक प्रेत जरूर उतरा
जिसे ठीक से हमारी नाज़ुक गर्दन दबानी भी नहीं आई