जानते हो दोस्त,
दूरियों के जो बीज
तुम
मेरी और अपनी राह के
बीच बो गए थे, वे अब
अँकुरने लगे हैं--
पत्र हों या फोन या ई-मेल
या फिर कोई और माध्यम
या फिर
स्वयं तुम तक पहुँचकर भी
मैं-- उन बीजों का वृक्ष बनना
रोक नहीं पाऊँगी, शायद
इन्हें उखाड़ फेंकने की ताकत भी
शेष नहीं है मुझमें
और
इन्हें लाँघ जाने का
साहस भी नहीं बचा है, मुझमें--!
क्या नजरें बचाकर भागने के लिए
दूरियों के बीज बोना जरूरी था--?