दूसरा कहाँ कोई है / गोबिन्द प्रसाद
कोई भी किसी के जैसा नहीं होता
यहाँ तक कि मेरी आँखें भी अपनी जैसी कहाँ हैं
यहाँ तक कि मेरी आँखें भी जब देखती हैं सपना
तो एक में खिलता है पूर्णिमा का चाँद
नीले गहरे आसमान में खिलते हैं फूल
और दूसरी में हैं सिर्फ़ कामग़ारों के हाथ
धरती-आसमान को मिलाने वाले हाथ
हाथ...सिर्फ़ हाथ
ऐसी मारा-मारी जहाँ अपना ही हाथ
पहचानता नहीं अपने को
आँखों की चौखट पर इच्छाओं के दरवाज़े नहीं हैं
सपनों की कौन कहे बात
कहाँ गयी वो सपनों वाली रात
चाहकर भी नहीं कह सके उम्र भर जिसे
कहाँ गयी वो अनोखी बात
जो आँख रात भर रोयी है
और जो बुनती है सपना
जो हाथ दिन भर गलाते हैं
अपने बदन की हड्डियों का लोहा
जो हाथ बुनते हैं रात-दिन इच्छाओं की चादर
जो पाँव चलते हैं उम्र भर
फिरते हैं रास्तों की खोज में फ़लक की तरह
जो तमन्नाएँ भटकती हैं सहरा-ब-सहरा
आवाज़ों की तरह अपनी दरिया जैसी देह में
वो लपट जो भभकने से पहले बिछड़ गयी है
आग से
वो लय से भटक गयी है
अपने राग से
आँखों में हैं सदानीरा
मेरी आँखें,
और आँखों में अनकही बात
सब कुछ में है मेरा ही मेरा मैं
दूसरा कहाँ कोई है
जो आँख रात भर रोयी है