भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं।
कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं।
प्रेमिका उर्वशी ढूँढ़ते हैं।
पर वधू जानकी ढूँढ़ते हैं।
हर जगह गुदगुदी ढूँढ़ते हैं।
घास भी मखमली ढूँढ़ते हैं।
वोदका पीजिए आप, हम तो,
दो नयन शर्बती ढूँढ़ते हैं।
वो तो शैतान है जिसके बंदे,
क़त्ल में बंदगी ढूँढ़ते हैं।
आज भी हम समय की नदी में,
बह गई ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं।