भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखे उन आँखों में / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
देखे उन आँखों में, अनुनय के दोहे
मैंने भी रच डाले, परिणय के दोहे।
कन्धे पर एक जरा मेरा सर ठहरा था
सिहरा था एक बदन, मैं भी तो सिहरा था
आँखों पर हाथ रखे देर तलक मौन रही
भावों के छन्दों पर कैसा वह पहरा था
अधरों पर झाँके थे, किसलय के दोहे।
दोहरे जब फूटे तो छप्पय तक आ पहुँचे
अर्थों को पढ़ने में कहाँ-कहाँ जा पहुँचे
अनजाने सागर के पार बहुत, अपनी नाव
फूलों की घाटी में आखिर हम ला पहुँचे
मन करता लिख दूँ, इस आशय के दोहे।
अधरों पर कौन सुरा रह-रह कर रख जाए
फिर बोझिल पलकों में हल्के से मुस्काए
साँसों में कस्तूरी, घोल-घोल जाए कौन
और वही, कानों में चुपके से समझाए
अक्षय है प्रेम, इसी अक्षय के दोहे।