देख रहा हूँ / मनोज जैन 'मधुर'
चाँद सरीखा
मैं अपने को,
घटते देख रहा हूँ।
धीरे धीरे
सौ हिस्सों में,
बंटते देख रहा हूँ।
तोड़ पुलों को
बना लिए हैं
हमने बेढ़व टीले।
देख रहा हूँ
संस्कृति के,
नयन हुए हैं गीले।
नई सदी को
परम्परा से,
कटते देख रहा हूँ।
चाँद सरीखा
में अपने को,
घटते देख रहा हूँ।
धीरे धीरे सौ
हिस्सों में
बंटते देख रहा हूँ।
अधुनातन
शैली से पूछें ,
क्या खोया क्या पाया।
कठ पुतली
से नाच रहे हम,
नचा रही है छाया।
घर घर में ज्वाला
मुखियों को
फटते देख रहा हूँ।
चाँद सरीखा
मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ।
धीरे धीरे
सौ हिस्सों में
बंटते देख रहा हूँ।
तन मन सब कुछ
हुआ विदेशी
फिर भी शोक नहीं है।
बोली वाणी
सोच नदारद
अपना लोक नहीं है।
कृत्रिम शोध से
शुद्ध बोध को
हटते देख रहा हूँ
चाँद सरीखा
मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ।
धीरे धीरे
सौ हिस्सों में,
बंटते देख रहा हूँ।
मेरा मैं टकरा
टकरा कर,
घाट घाट पर टूटा।
हर कंकर में
शंकर वाला,
चिंतन पीछे छूटा।
पूरब को
पश्चिम के मंतर,
रटते देख रहा हूँ।
चाँद सरीखा
मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ।
धीरे धीरे सौ
हिस्सों में
बंटते देख रहा हूँ।