देर बड़ी हो रही दयानिधि / प्रेम नारायण 'पंकिल'
देर बड़ी हो रही दयानिधि कब मन तुमसे जुड़ जायेगा।
पता नहीं कब तन-पिंजरे से जीवन-सुगना उड़ जायेगा।।
क्या रक्खा है कामुकता की मृग-मरीचिका में
क्षण-भंगुर भोगों में फॅंसकर घृणित मनोरंजन करने में।
मूर्ख सोचता नहीं तेज-बल बुधि-वर्चस्व निचुड़ जायेगा-
पता नहीं कब तन0......................................।।1।।
अस्थि, मूत्र-मल-मज्जा पूरित तन, जिसको समझा है सोना।
कितना उपहास्यास्पद उसमें प्रभु हो लिप्त प्रफुल्लित होना।
चर्म-हीन तन देख रूप का कोई रसिक बिछुड़ जायेगा-
पता नहीं कब तन0......................................।।2।।
दुष्प्रवृत्ति से पाते क्या हम खोते ही खोते रहते हैं।
मूल्यवान पट जला तापते फिर पीछे रोते रहते हैं।
लपट को न पता छल चंचल मोटक भोग भुकुड़ जायेगा-
पता नहीं कब तन0......................................।।3।।
चोरी-ठगी आदि से तो नर कुछ व्यक्तिगत लाभ लेते हैं।
पर कामी व्यमिचारी तो निज सब सामथ्र्य गवां देते है।
कब तज काम-विकार हृदय तब चरण बीच समा जायेगा-
पता नहीं कब तन0......................................।।4।।
मुख-क्षति-पीड़ा भूल श्वान ज्यों सूखी हड्डी नोचा करता।
काम-विवस मैं भी वैसे ही प्रियतम घोर यातना सहता।
शीघ्र कृपा कर पता न कब तन ‘पंकिल’-पन्ना मुड़ जायेगा-
पता नहीं कब तन0......................................।।5।।