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देवताओं का स्वप्न / पंकज सिंह

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बादल गरजते हैं और बारिश होती है मूसलाधार

पहाड़ रोते हैं और नदियाँ उमड़ आती हैं

भाषाओं के नीले क्षितिज की दूसरी तरफ़

एक आदिम मौन की लपट में

सारे कोलाहल लय हो जाते हैं


तब वे औरतें आती हैं जिन पर

देवताओं की कृपा से बलात्कार हुए थे

फिर वह सारा रक्त आता है जो अदृश्य हो गया था

और सागरों-सा हाहाकार करता बहने लगता है

उत्ताल


तब वे घर दिखते हैं जिन्हें

वसन्त के हरे-भरे संगीत में जला दिया गया था

प्रकट होते हैं तालियाँ बजाते पुराने दरवाज़े

तड़तड़ाती हुई नाचती आती हैं खिड़कियाँ

जंगली ताल गुँजाते आते हैं बर्तन


फिर वे देवता

जो बारी-बारी दुनिया को रचते

चलाते

और नष्ट करते जाते थे


दिखते हैं भागते हुए



(रचनाकाल : 1979)