भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देवदार / बुद्धिनाथ मिश्र
Kavita Kosh से
जंगल से आया है समाचार
कट जाएँगे सारे देवदार ।
देवदार हो गए पुराने हैं
पेड़ नहीं, भुतहे तहख़ाने हैं
उन बूढ़ी आँखों को क्या पता
पापलरों के नए ज़माने हैं ।
रह लें वे तली बन शिकारे की
अश्वत्थामाओं में हों शुमार ।
घूम-घूम कह गए गड़ाँसे हैं
ठीक नहीं ज़्यादा हिलना-डुलना
बाँसवनों ने तो दम साध लिया
बन्द हुआ बरगद का मुँह खुलना ।
मरी हुई सीप थमाकर लहरें
मोती ले गई सिन्धु से बुहार।
नाप रहा पेड़ों को आरा-घर
कुर्सियाँ निकलती हैं इतराकर
बिकने को जाएँगी पेरिस तक
नाचेंगी विश्वसुन्दरी बनकर ।
कौन सुने, ओसों के भार से
दबी हरी दूबों का सीत्कार !