भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देशद्रोही चैनलों से / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देशद्रोही चैनलों से
देश को जल्दी बचाओ।
बेतुकी ये बहस टीवी पर हमेशा छेड़ते हैं,
सोच की जो राह सच्ची उसे अक्सर भेड़ते हैं,
गरजते हैं, तरजते हैं, झमझमाकर बरसते हैं,
देश के विपरीत बातें श्रवणकर ये हरसते हैं;
काम इनका एक ही है
खूब अफवाहें उड़ाओ।
देश की खिल्ली उड़ाकर ये विदेशी गीत गाते,
मर चुके मुद्दे उठाकर आमजन को बरगलाते,
'सर्वविद ये तार्किक हैं' हर समय ऐसा दिखाते,
बात इनकी मान लो सब महाज्ञानी ज्यों सिखाते;
ये असल में अधपके हैं
आग में इनको पकाओ।
साम्प्रदायिक प्रीति या सौहार्द सुनकर ये तड़पते,
राष्ट्रवादी चिन्तना से बैल के माफिक भड़कते,
बात छोटी या बड़ी हो हर समय झगड़ा लगाते,
ये विकट घड़ियाल जैसे झूठ के आँसू बहाते;
छद्मभेंसी ये विदेशी,
देश से इनको भगाओ।
काठ की ज्यों पुतलियाँ हैं ये अमीरों के खिलौने,
अन्य देशों की हैं जूठन मखमली अथवा बिछौने,
यदि कहूँ "मैं देशप्रेमी सही पथ का एक राही";
ये कहेंगे "अन्य जन क्या देशद्रोही या कुराही?"
ये विनाशक सड़े नारे
दौड़कर इनको मिटाओ।
चल रहे सब कार्यक्रम इनके विदेशों के सहारे
छोड़ कर अच्छाइयाँ बस व्यर्थता निशिदिन उघारें
ये विघाती देश को फिर तोड़ने की ताक में हैं
आँख में इनकी घृणा है द्वेष ईर्ष्या नाक में है
आँख इनकी फोड़ डालो
नाक सूर्पणखा बनाओ।
ये हैं बन्तू, पीटते हैं झूठ का हरदम ढिढोरा
दीखता है हर कहीं पर रूप इनका अति छिछोरा
है नहीं गांभीर्य इनमें पारखी अनुदृष्टि अंधी
नकलची बंदर सरीखे नीति गंदी, रीति गंदी
देश का हित चाहते यदि,
पीटकर इनको पढ़ाओ।