देशला गीत / रामचंद्र घोष
सानोॅ नाँखी भोर, जों झलकै
चानी नाँखी दिन, जों चमकै
तामोॅ नाँखी साँझ, जों दमकै
तेॅ लाहोॅ रङ अन्हारोॅ सें की डोॅर ?
हरसी-हुलसी फूटै, देशला गीत, हिरदय जागै सूचा पिरीत
जीवन-यौवन पक्का तिरीथ
झूमी-झूमी नाँचै मनोॅ रोॅ मोर !
मतर सब छूच्छोॅ भरम, फुटलोॅ कपार, फुटलोॅ करम
केकरा लाज, केकरा शरम
नै झलकै कन्हो इँजोर !
की यहाँ साँझ, की विहान, की यहाँ दिन, की यहाँ शाम ?
सुक्खा-सुक्खी सीताराम ! झुट्ठे बात, झुट्ठे शोर !
कोय ‘कूँ’ करौ की ‘काँ’, कोय ‘नूँ’ करौ कि ‘नाँ’
कोय ‘हूँ’ करौ कि ‘हाँ’, जेहे सिपाही वहेॅ चोर ।!
देखथैं रहोॅ अन्हरिया खेल, केकरोॅ यहाँ कुच्छू नै सेल
गान्ही-सुभासµसब्भे फेल, सरोॅ पर नाँचै सब्बा सेर !
हाय रे निरदय लोहोॅ अन्हार
सोनोॅ-तामोॅ सब बेकार
राकस नाँचै साँझ भिनसार, जिब्भा सें टपकै टपटप लार ।
हमरोॅ आँखी में लोर ! कोरमकोर !